मध्य-पूर्व में ईरान और इज़राइल के बीच बढ़ते तनाव के बीच ईरान ने हाल ही में एक नई ‘इस्लामिक आर्मी’ गठित करने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें तुर्किए, पाकिस्तान, सऊदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों को शामिल कर एक साझा सैन्य मोर्चा बनाने की बात कही गई है। इस प्रस्ताव के पीछे इज़राइल के खिलाफ सामूहिक जवाब देने का मकसद बताया गया है। लेकिन यह विचार कितना व्यवहारिक है और क्या यह वास्तव में लागू हो सकता है? आगरा के कई पूर्व वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने इस विषय पर चर्चा करते हुए अपनी राय रखी और इस पहलु को राजनीतिक, रणनीतिक और मानवीय दृष्टिकोण से विश्लेषित किया।
पूर्व सैन्य अधिकारी कर्नल जीएम खान (सेवानिवृत्त) ने इस प्रस्ताव को एक सैन्य योजना से अधिक एक राजनीतिक संकेत बताया। उनके अनुसार, यह केवल एक वैचारिक सन्देश है जो फिलहाल कूटनीतिक सीमाओं तक ही सीमित है। वहीं कर्नल रणबीर सिंह सोढ़ी (सेवानिवृत्त) ने इसे पूरी तरह से अव्यवहारिक और भावनात्मक नारा करार दिया। उन्होंने बताया कि इस्लामिक देशों के आपसी संबंध इतने उलझे हुए हैं कि कोई एकीकृत सेना बनाना फिलहाल संभव नहीं है। उदाहरण के तौर पर, सऊदी अरब अमेरिका पर निर्भर है, पाकिस्तान आर्थिक संकटों से जूझ रहा है, तुर्किए NATO का सदस्य है, और ईरान खुद आंतरिक चुनौतियों में फंसा हुआ है।
कमांडर राम मोहन शर्मा (सेवानिवृत्त) ने इस विचार को पूरी मानवता के विरुद्ध बताया। उनका कहना था कि ऐसी कोई भी पहल, जो दुनिया को धार्मिक आधार पर बांटने की कोशिश करे, न केवल मानवता के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है, बल्कि यह वैश्विक स्थिरता के लिए भी खतरा बन सकती है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए कैप्टन सुरेंद्र रावत (सेवानिवृत्त) ने कहा कि इस तरह की कोई भी ‘धार्मिक सेना’ केवल हिंसा, नफरत और अस्थिरता को बढ़ावा देगी, जिससे वैश्विक शांति को गंभीर खतरा पैदा हो सकता है।
इस पूरी अवधारणा पर कर्नल राजेश मालीवाल (सेवानिवृत्त) ने गहरे मतभेदों की ओर इशारा किया। उन्होंने बताया कि इन मुस्लिम देशों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर इतने असामंजस्य हैं कि एकजुट सैन्य गठबंधन की कल्पना भी एक हताश राजनीतिक प्रयास के सिवा कुछ नहीं है। वहीं कर्नल एएम नायडू (सेवानिवृत्त) ने इसे नेतृत्व, उद्देश्य और ढांचे की अस्पष्टता के कारण पूरी तरह असंभव करार दिया। उन्होंने कहा कि मुस्लिम देशों में आज भी शिया-सुन्नी विभाजन, क्षेत्रीय तनाव और वैश्विक ध्रुवीकरण की चुनौतियाँ हैं, ऐसे में इस्लामिक आर्मी जैसी कोई भी इकाई केवल कागज़ पर ही सीमित रह सकती है।
अंत में ब्रिगेडियर शंकर प्रसाद का विश्लेषण भी उल्लेखनीय है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ईरान का यह प्रस्ताव मूल रूप से एक राजनीतिक संकेत है, जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एक खास सन्देश देने की कोशिश करता है। लेकिन भू-राजनीतिक समीकरण, आर्थिक अस्थिरता और आपसी अविश्वास इसे कभी वास्तविकता में बदलने नहीं देंगे।
इस तरह विशेषज्ञों का विश्लेषण बताता है कि ईरान की ‘इस्लामिक आर्मी’ की परिकल्पना फिलहाल एक भावनात्मक और कूटनीतिक रणनीति के रूप में देखी जा रही है, लेकिन इसकी ज़मीनी हकीकत बेहद संदेहास्पद और दूर की कौड़ी है।