वहशीपन, घिनौनेपन और दरिंदगी का पर्याय बनी ‘मिर्ज़ापुर’ की कोठी असल में कहां है?

आखिर कितनी को निगल चुकी है । मिर्जापुर की ये कोठी । ऐसा क्या होता था ,मिर्जापुर , के मालिक की कोठी में । अश्लील सिर्फ वेब सीरीज ही नही बल्कि वहां का पूरा माहौल है । आखिर किसकी है ये कोठी और कोन है इसका मालिक ।
मिर्जापुर 3 तो अब तक देख ही चुके होंगे. कुछ लोगों के ये सीज़न महा-रद्दी लगा तो कुछ को ठीक-ठाक. इस बार की राइटिंग भी ज़रा कमज़ोर थी, नहीं? ख़ैर हम यहां आपको इसका रिव्यू देने नहीं आए हैं ।

ये बताने आए हैं भैया कि जिस ‘मिर्ज़ापुर’ की सीरीज़ को देखकर आप माथा फोड़ रहे हैं, उन सभी में एक चीज़ कॉमन है. वो है त्रिपाठियों की कोठी. वो कोठी जहां पहले सीज़न से रार होता आया है. अखंडानंद त्रिपाठी उर्फ प्यारे बाबू जी की ये कोठी कईयों को लील चुकी है. ये कोठी वहशीपन और घिनौनी वारदातों की साक्षी रही है. लेकिन असल में ये कोठी भारत के किस हिस्से में है, आप जानते हैं? घबराइए नहीं…हम बताते हैं आपको. आज त्रिपाठियों की कोठी, त्रिपाठी चौक और लाला की हवेली के बारे में बात करेंगे. बताएंगे ये कोठियां असलियत में है कहां. तो आओ यार…शुरू करते हैं….

आगे बढ़ने से पहले ये चीज़ दिमाग में घुसा लें कि आगे कई सारे स्पॉइलर्स मिलेंगे. अगर सीज़न 3 तक पूरी सीरीज़ निपटा चुके हैं तो बहुत मज़ा आने वाला है. लेकिन अगर कुछ एपिसोड्स बाकी हैं तो दिल थाम कर ही आगे बढ़ो गुरू.

सबसे पहले बात करेंगे त्रिपाठियों की कोठी यानी त्रिपाठी कोठी की. वो हरी सी दिखने वाली सुंदर कोठी जिसके सामने खूब बड़ा बगीचा है. वैसे तो सीरीज़ में ये कोठी मिर्ज़ापुर में दिखाई गई है. जो प्रयागराज से करीब 94 किलोमीटर दूर पड़ता है. लेकिन असल में ये हरी कोठी उत्तर प्रदेश के शहर बनारस में स्थित है. इसका असली नाम है, मोती झील महल या अज़मतगढ़ पैलेस.

मोती झील महल का इतिहास 100 साल से भी ज़्यादा पुराना है. इसे यहां के ज़मींदार राजा मोती चंद ने बनवाया था. महल को बनने में करीब चार साल का समय लगा था. साल 1904 से 1908 तक इसका निर्माण चला था. 1913 के आस-पास इस महल के पीछे एक झील भी खुदवाई गई थी. वैसे अज़मतगढ़, आजमगढ़ का एक छोटा सा गांव है. जहां से राजा मोती चंद और उनका परिवार बनारस शिफ्ट हुआ था. इसी वजह से इस महल का नाम अज़मतगढ़ पैलेस पड़ा. फिलहाल ये एक प्राइवेट प्रॉपर्टी है. जहां ‘मिर्ज़ापुर’ के साथ-साथ कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है ।
कालीन भईया और मुन्ना
कुछ वक्त पहले तक मोती झील महल के मुख्य द्वार पर एक असली मगरमच्छ टंगा दिखाई देता था. कहा जाता है कि इस मगरमच्छ ने महल की रानी को निगल लिया था. जिसके बाद यहां के राजा ने उस मगरमच्छ के पेट को बीच से फड़वा दिया. फिर उसमें भूसा भरवाकर मुख्य दरवाज़े के बाहर टांग दिया. हालांकि इन कहानियों में कोई सच्चाई नहीं है. मोती चंद के पोते अशोक कुमार गुप्ता बताते हैं कि ये सिर्फ एक अफवाह है. असल में इस मगरमच्छ को कुछ मछुवारों ने गंगा से पकड़ा था. बाद में राजा को खुश करने के लिए दे दिया था ।

‘मिर्ज़ापुर’ का तीसरा सीज़न देखा होगा तो आपको वो सीन याद होगा, जब गुड्डू भैया त्रिपाठी चौक पर बनी अखंडा और कालीन की मूर्ती को तोड़ते हैं. दरअसल ये त्रिपाठी चौक भी मिर्ज़ापुर में नहीं बल्कि बनारस में है. इस सीन में चौराहे के सामने पिंक कलर का जो किला दिखता है ना वो बनारस का रामनगर किला है. पिंक रंग से रंगा गेट इस किले का मुख्य द्वार है ।
1750 में बना ये किला अब एक संग्राहलय में तब्दील हो चुका है. जहां अलग-अलग तरह की बघ्घियां, गाड़ियां, राजा-महाराजा के कपड़े, औजार और भी तरह कई चीज़ों का संग्रह है. इस किले में एक ज्योतिष घड़ी भी है. कहते हैं यहां कभी काशी के राजा रहा करते थे. अब उन्हीं के परिवार के लोग यहां रहते थे. माना ये भी जाता है कि वेद व्यास ने यहीं आकर महाभारत लिखी थी. बहुत से लोगों का ये भी मानना है कि ये किला भूताहा है. ख़ैर, ये सब सुनी-सुनाई बातें हैं.

‘मिर्ज़ापुर’ में व्यापारी लाला की कोठी पर भी खूब चीज़ें पकी हैं. यहां व्यापारियों का आना-जाना लगा रहा. ये झक्क सफेद हवेली सीरीज़ में बलिया में दिखाई गई है. मगर असल में ये हवेली रायबरेली में है. इस हवेली का असली नाम है महेश विला पैलेस. जो शिवगढ़ से 30 किलोमीटर की दूरी पर है. ये उत्तर प्रदेश के छह हैरिटेज किलों में से एक है ।
साल 1942 में ये महल राजा महेश सिंह ने बनवाया था. ये महल बीकानेर के लालगढ़ महल की तर्ज पर बना है. इस महल को बनाने में इटली के संगमरमरों का उपयोग हुआ है. महल की खास बात ये है कि इसकी बालकनी से आप पूरा का पूरा शहर देख सकते हैं ।

मिर्ज़ापुर सीरीज़ में रतिशंकर शुक्ला की हवेली यानी शुक्ला कोठी की भी खूब चर्चा है. रति का लड़का, शरद, जो खुद को मिर्ज़ापुर की गद्दी का दावेदार कहता है, वो इस हवेली में अपनी मां और ताऊ कालीन भईया के साथ रहता है. सीरीज़ में इस सफेद हवेली को जौनपुर में स्थित बताया गया है ।
मगर असल में ये हवेली लखनऊ के पास बाराबंकी में मौजूद है. जिसे किदवई हवेली के नाम से जाना जाता है

वैसे ये सारी हवेलियों और कोठियों में कई फिल्मों और सीरीज़ की शूटिंग हो चुकी है. आज कल फिल्ममेकर्स छोटे शहरों में अपने प्रोजेक्ट्स को शूट करना चाहते हैं. जिसकी लागत भी बड़े शहरों की तुलना में कम होती है ।

ब्यूरो रिपोर्ट TNF Today .

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